मैंने कोई बोर्ड-बैनर भी नहीं लगाया

रानी जी से बातचीत

रानी जी, लोधी कालोनी में आपकी अच्छी कनेक्टिविटी है। जब आप यहां आईं तो यहां कैसा माहौल था?

हम यहां दिसंबर के महीने में आए थे। हमारे जो रेगुलर स्टूडेंट्स थे, वे बीच में ट्यूशन नहीं छोड़ना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने यहां पर भी आना शुरू कर दिया। जब लोगों ने देखा कि न्यू कमर्स हैं और स्टूडेंट्स भी आते जाते रहते हैं तो मेरी पब्लिसिटी होने लगी। मेरा नेटवर्क आराम से तैयार हो गया। दिसंबर से मार्च तक बड़ी क्लास के स्टूडेंट्स का आनाजाना लगा रहा क्योंकि फ़ाइनल एग्जाम आने वाले थे। इसलिए मेरे स्टूडेंट कोई दूसरी ट्यूशन जॉइन नहीं कर सकते थे। आज मैं जहां हूं, उस लेवल तक पहुंचने के लिए मैंने काफी स्ट्रगल किया है।

कैसा स्ट्रगल किया आपने?

जैसे कि मेरा एम मेडिकल था। मैंने कई जगह एन्ट्रेंस दिए, पी.एफ.टी, की, लेकिन मैं सेलेक्ट नहीं हो पाई। इसके बाद मैंने कई जगह कोचिंग जॉइन की। फिर बाहर रहकर हॉस्टल में भी पढ़ा। इस तरह मेरे पास एजुकेशन का होल्डअप तो आ ही गया था। फिर मेरे हसबैंड की सरकारी नौकरी थी तो इस वजह से हम सेफ एंड सिक्योर महसूस करते थे। हां, मुझे इतना लगता था कि लाइफ बड़ी आसानी से गुजर रही है। मुझे कुछ तो करना चाहिए। इसलिए मैंने घर में ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। इस तरह बच्चों के आनेजाने से खुद ब खुद एक ग्रुप बन गया। पांच साल मैंने घर में ही ट्यूशन पढ़ाया। जो बच्चे मेरे पास ट्यूशन पढ़ने आते, उनके घर की लोकेशन तक मुझे पता नहीं और मैं उनसे कहीं बाहर मिली भी नहीं।

हमारा घर सेलेक्ट सिटी मॉल के पास है। वहां बहुत से लोग मुझे सिर्फ नाम से जानते हैं। वहां दूरदूर तक लोग कहते हैं कि यहां रानी मैम रहती हैं जो साइंस बहुत अच्छा पढ़ाती हैं। मतलब, ऐसे ही रिफरेन्स से मेरे पास बच्चे आ जाते हैं। इस तरह जिस बिल्डिंग में मैं रहती हूं, वहां से भी बच्चे मेरे पास आने लगे। और इस तरह कनेक्टिविटी बनती चली गई। जो बच्चे मेरे पास ट्यूशन पढ़ने आते थे, वे एक दूसरे को बताते थे कि मैम अच्छा पढ़ाती हैं। फिर एक बात और थी। मैं बच्चों से फीस भी उसी हिसाब से लेती हूं, जितनी वे दे सकते हैं। मैं कोई लालच नहीं करती थी। इसके बाद मैंने घर से बाहर कोचिंग सेंटर की शुरुआत की।

घर में ट्यूशन पढ़ाने के बाद बाहर कोचिंग सेंटर शुरू करने की क्या वजह थी?

सबसे पहली बात तो मैं अपना बिजनेस बढ़ाना चाहती थी। दरअसल जो बच्चे मेरे पास बारहवीं तक पढ़ते थे, वे आगे की पढ़ाई भी मेरे पास से करना चाहते थे। इस उम्र के बच्चे लगातार बढ़ रहे थे जो किसी एन्ट्रेंस को क्लीयर करने के लिए भी कोचिंग करना चाहते थे। जब इन बच्चो की संख्या बढ़ती गई तो मैंने सोचा कि मुझे बाहर भी एक कोचिंग सेंटर खोलना चाहिए। लेकिन यह भी इतना आसान नहीं था। जब हमने कोचिंग सेंटर शुरू किया तो इलाके में और कोचिंग सेंटर भी थे। उनका प्रेशर भी था। वे लोग देखते थे कि अच्छा कोचिंग सेंटर है। इतने सारे बच्चे भी आते हैं। इनकी इनकम भी अच्छी होगी। इसलिए उनके साथ कॉम्पिटीशन वाला प्रॉब्लम भी रहा। एक बार तो मैं बहुत डिप्रेशन में भी आ गई कि यह सब कैसे सैटल होगा। घर और बाहर, दोनों को देखना थोड़ा मुश्किल वाला काम था।

यहां आपको और किनकिन दिक्कतों का सामना करना पड़ा?

हां, बस यही दिक्कत हुई। मैंने यहां पर बच्चों के ही जरिये अपने कोचिंग सेंटर को बढ़ाया। मैंने कोई एडवरटाइजिंग नहीं किया, कोई बोर्डबैनर भी नहीं लगाया।

रानी जी, यह बताइए कि बोर्ड और एडवरटाइजिंग के बिना, आप अपने कोचिंग सेंटर को आगे कैसे ले गईं?

आजकल अगर इनसान के पास एजुकेशन है तो वह उसे सही तरीके से इस्तेमाल करना चाहता है। मेरे यहां जो बच्चे आते हैं, उनको और उनके पेरेंट्स को क्या चाहिए? अच्छा रिजल्ट। और अगर उन्हें मुझसे यह सब मिलता है तो वे मेरे पास आएंगे। पेरेंट्स बच्चों को उसी टीचर के पास भेजेंगे जो उन्हें अच्छा रिजल्ट देगा। उन्हें पता है कि मेरे पास उनका बच्चा सिक्योर भी रहेगा और पढ़ेगा भी। इसके बदले, उन्हें बहुत ज्यादा फीस भी नहीं देनी पड़ेगी।

मैंने देखा कि यहां रहने वाले ज्यादातर लोग मिडल और लोअर मिडिल क्लास के हैं। हम उनकी इनकम को देखते हुए उनसे फीस लेते हैं। इससे उनको भी कोई नुकसान न हो और हमें भी। हम दोनों का कामकाज चलता रहे।

आपका इतना मजबूत नेटवर्क कैसे बना?

वह तो मुझे भी नहीं पता चला, बस बच्चे आपस में एक दूसरे को बता देते हैं और एक दूसरे को कोचिंग में इंट्रोड्यूस करते रहते हैं। पहले जो बच्चे कोचिंग में पढ़कर जा चुके थे, वे दूसरे ग्रुप को जाकर बताते थे। उनमें से कुछ तो नौकरी भी करने लगे हैं। कइयों की शादियां भी हो गई हैं। ऐसे मुझे याद नहीं रहता लेकिन जब किसी बच्चे के मातापिता का फोन आता है तो बच्चे की क्लास के बारे में ही सुनकर मुझे याद आ जाता है।

जब कोई पेरेंट्स आपसे मिलने आते हैं तो उनसे भी बातें होती होंगी।

जब पेरेंट्स छोटे बच्चो को छोड़ने आते हैं तो ज्यादातर बच्चो की वर्कशीट्स के बारे में बातें होती हैं।

क्या पढ़ाई के अलावा पर्सनल बातें भी होती हैं?

कोचिंग के समय में तो मैं बच्चों को पढ़ाने में बिजी रहती हूं। बच्चे भी बहुत से हैं इसलिए इतना वक्त नहीं होता कि उनसे पर्सनल बातें कहूं। हां, एक बार एक लड़की मेरे पास आई, जो मुझसे पहले पढ़ चुकी थी। उसने मुझसे कहा कि उसे दो महीने के लिए जे.बी.टी. की कोचिंग चाहिए। मैंने हांमी भर दी क्योंकि वह मेरे पास पहले भी पढ़ चुकी थी।

नेटवर्क की सबसे बड़ी बात भरोसा है। आप पर इन बच्चों ने भरोसा किया और इनके मातापिता ने भी।

हां, भरोसा तो है। लेकिन आज के समय में भरोसा बनाए रखना भी बहुत मुश्किल है।

जैसे आपने बताया था कि एक बच्चा था, जो हरदम रबर खाता रहता था। घर पर शैतानियां करता था। उसकी मां ने उसे आपके पास भेजा ताकि आपके पास आकर कुछ सीखे। तो उसके साथ आपका सिर्फ यह रिश्ता नहीं था कि आपको उसे सिर्फ पढ़ाना था। आप उसे एजुकेशन के साथसाथ एक सलीकासमझ भी दे रही थीं।

हां, उनके पेरेंट्स को लगता है कि यह जगह हमारे बच्चे के लिए सेफ़ है। इसके साथ उसे एजुकेशन भी मिल रही है। तो वे चिंतामुक्त हो जाते हैं। इस इलाके में लड़कियों को पढ़ाना भी महत्व रखता है। जो पेरेंट्स मेरे पास आते हैं, वे बहुत कुछ कहते हैं। अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में बताते हैं। मैं ज्यादा सोचती नहीं। उनके बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देती हूं। अगर वह फीस लेट देते हैं तो मैं सोचती हूं कि कोई बात नहीं। मैं कहती हूं कि आप बस इतना बता दीजिए कि आप किस तारीख को फीस दे सकते हैं। इस बारे में मैं ज्यादा सवाल नहीं करती।

लड़कियों के लिए सुरक्षित माहौल ज्यादा मायने रखता है। क्या बच्चों के पेरेंट्स ने आपसे इस बारे में बात की है?

हां, मैंने यहां लड़कों के लिए सुबह की शिफ्ट रखी है। लड़कियां ज्यादातर दोपहर को आती हैं। शाम को साढ़े छह बजे के बाद लड़के आते हैं। इससे पेरेंट्स निश्चिंत रहते हैं।

क्या कभी आपको किसी पेरेंट ने रिक्वेस्ट किया है कि लड़कियों का बैच अलग होना चाहिए?

नहीं, इतना तो नहीं, पर जो अच्छे पढ़ेलिखे हैं, वे सही और गलत की पहचान कर सकते हैं। हम भी इतना पढ़ चुके हैं कि सराउंडिंग को समझ सकते हैं। जब हम एजुकेशन दे रहे हैं तो बहुत सारी चीजें क्रिएट होती हैं। आपको पढाई भी करानी है और माहौल भी अच्छा रखना है। जैसे हम लोग ब्रोशर छपवाते हैं तो उससे ही माहौल के साथ एक रिश्ता बन जाता है। हम सोचते हैं कि क्या होगा पर उससे कोई पॉजिटिव रिस्पांस मिलता है तो अच्छा ही रहता है।

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