लता जी

मैं पहले कही बाहर नहीं जाती थी, घर में ही रहती थी। मुझे यहाँ के बारे में कुछ पता नहीं था।

आप कहा से है ?

मैं बरेली से हुँ। यहाँ मै 2002 में आई। जब मेरे हस्बैंड यहाँ आये तो रिक्शा चलाते थे। वो शुरू में यहाँ 1984 में आये। इस से पहले वो कोटला में छोटा मोटा काम किया करते थे।

वक्त के साथ कुछ बदला। मेरे हस्बेंड को यहाँ एक दुकान में ही काम मिल गया। साई मंदिर के पास 10-11 साल हम रहे है।

मेरा अब कपडे सिलने का काम है, मशीन चलाती हूँ। मुझे पहले मशीन में कुछ करना नहीं आता था, सुई में धागा तक डालना नहीं आता था। मैं बच्चो को स्कुल छोडने जाती थी तो एक दिन रस्ते में पता चला

.पी .जी सेंटर सिलाई मशीन और पारलर का कोर्स करवाते है। जब मैं वहां जाना शुरू की तब मेरी समझ में कुछ आता नहीं था।

कुछ दिन बाद मैं अपनी बात वहा एक टीचर से कही। उन्होंने मुझे अपने घर पे सिखाने की बात कही। मैं और मेरे साथ 3 -4 लडकी उनके घर मशीन सिखने जाने लगे। उनका घर गुप्ता कालोनी में था। हम रोज वहा जाते थे।

आप को अचानक एैसा क्यों लगा कि सिलाई मशीन चलाना सीखना है ?

मुझे सिलाई सीखना था। घर पे जो मैं काम करवाती थी उसमे बाहर से काम करवाने में पैसा लगता था। ठीक से सिलाई भी नहीं होती थी। इस लिए मैंने खुद ही सिलाई सिखने का फैसला लिया।

मेरे हसबंड खाने पिने का दुकान चलाते थे। कुछ दिन यह दुकान चली फिर बंद हो गई क्योंकि उसमे कुछ निकलता नहीं था, किराया तक नहीं हो पाता था। उन्ह¨नेे दुकान को बंद कर के जॉब पर लग गए, जो भी थोडा बहुत कमाते उसमे ही गुजारा होता था। जब मेरे हसबंड ने दुकान छोडी तब ये पूरा खाली था। फिर मैंने अपने आदमी से कहा की भाई जी से कहो कि उनके दुकान के कमरे में, मैं सिलाई का काम खोल लुंगी।

आप ने यह दुकान कैसे खोली ?

जब मैं यह काम सिख रही थी तो वही पे मेरे 2-3 दोस्त थे उनके साथ ही मिलकर सोचा कि हम मिल कर यह काम खोल लेते है।

हमारे पडोस में जो भाई थे उनसे बात की, कि हम सिलाई का काम ख®लना चाहते हैै। वो अपनी दुकान देने के लिए मान गए। दुकान जब खोली तो सोचा कि पढाई करूँ पर इतना टाइम नहीं होता था। पढाई शुरू की और छुट गई।

आप की दिनचर्या क्या होती है ? आप कहाँ कहाँ जाते हो ?

घर में सुबह 6 बजे उठती हँू, बच्चो का नाश्ता बनाने के बाद उनको स्कुल छोड कर आती हूँ। फिर उनका नाश्ता, घर का काम कर के 11रू15 पर मैं दुकान पर आ जाती हूँ। और यहाँ सिलाई में लग जाती हूँ मशीन पर काम करते करते समय का पता नहीं लगता और दोपहर 1रू35 पर फिर बच्चो को लेने जाना होता है। स्कुल से बच्चो को लाने के बाद घर में खाना बना कर उनको खिला कर 4रू30 बजे फिर दुकान पर 1 -2 घंटे काम करती हूँ। शाम को घर चली जाती हूँ। घर पर फिर वही काम होता है साफ सफाई, बच्चो को देखना, खाना बनाना।

इतना कुछ करने के बाद आप अपने लिए समय निकल पाती है ? कभी अपने लिए कुछ कर पाती हैं ?

अभी तक तो नहीं। अपने लिए कहाँ इतना टाइम मिलता है, यहाँ जो काम कर के सौ पचास रुपए आमदनी होती है उससे घर की साग सब्जी आ जाती है।

मेरे हसबंड को टाइम नही होता था की बच्चो का एडमिशन किसी स्कुल में कराये। मैंने ही भाग दौड कर के सरकारी में एडमिशन करवाया था। बहुत धक्के खाए मेरी एडियो में भी दर्द हो गया था। तब जाकर मुझे लगा कि जिन्दगी में बहुत मेहनत करनी पडती है।

आप को दस साल हो गए तो, आप को कैसा बदलाव दिखा ?

पहले इतने लोग और इतनी दुकाने नहीं थी। मॉल बन जाने से यहाँ ज्यादा लोग आकर रहने लगे। स्टाइल में बदलाव आया और दिन व दिन आबादी बढ़ती गई। इसमे ज्यादा ध्यान नहीं दिया। कौन कब निकलता है उसका मुझे कोई आइडिया नहीं है, मैं कुछ कह नहीं सकती।

आप कही बाहर घुमने जाते है कोई फिल्मे देखने के लिए ?

नहीं, इतना हमरे पास टाइम नहीं होता है, घर में ही रहते है और इतना पैसा भी नहीं होता की बाहर खाना खा सके और फिल्म देख सके।

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