बुशरा

जब मैं 10 साल की थी तब मेरे पिताजी गुजर गए मोदी हॉस्पिटल में। उनकी मौत कैंसर से हुई थी। मेरा सब से छोटा भाई तब डेढ साल का था। मैं अपने घर में सबसे बड़ी थी। मेरे पापा की पर्चुन की दुकान था। मेरे ऊपर जिम्मेवारी आई क्योंकि मेरी मम्मी बहुत सीधी थी। किसी ने हमारी सहायता नहीं करी। उसके बाद मैने ही दुकान चलाई।

उस समय पानी के मीटर लग रहे थे। 18-19 साल पहले की बात है। हमारे पास उस समय पैसे नहीं थे। जितनी कमाई होती उतना तो खर्चा हो जाती थी। सिर्फ एक टाइम, 4 बजे खाना खाते थे हम, फिर दुसरे दिन खाना खाते थे हम लोग। उस वक्त स्कुल जाती थी फिर कपडे तुरपाई करती थीे। 4 रूपये पिस मिलता था, दुकान भी चलाती थी। अपने कंधे पर पैतिस किलो चावल रख कर लाती थीे। पहले मैं सैंट मेरी पब्लिक स्कुल में पढ़ती थी और फिर पापा के मौत के बाद सरकारी स्कुल में गई क्यों की इतना खर्चा नहीं होता था। दुकान चलने के दोरान मेरी मुलाकात एक अंटीजी से हुई। अंाटी ने आकर मुझ से बोली “बेटा मैं पढ़ी लिखी नहीं हुँ, मैं लेडिस इकट्ठी करुँगी, तू काॅपी पे लिखना।” शायद हम लोगो ने 200 रुपए की पर मंथ से कमेटी शुरू की थी जो साढ़े तिन हजार के थे। उसके बाद 10 हजार फिर 15 हजार फिर 50 हजार आज 1 लाख के करते है। इस काम को 19 साल हो गए।

मैंने अपने पैरो पर खडे होने के लिए पढाई के दौरान एक किराने की दुकान में साफ सफाई का काम करती थी, तब मैं दसवी कक्षा में थी। मैं दुकान का सामान अपनी साईकिल के उपर रख कर लाती थी।

जब मैं 11 वि में गई तो घर में बैठ कर लडको से काम करवाती थी। येे लडके घर में बैठ कर एम्ब्र®डायरी का माल बनाते थे। मेरी खाला के बेटे फैक्ट्री में काम करते थे वो मुझे काम दिया करते थे। मैं उनको ये काम कर के दे दिया करती थी। वहा से भी कुछ आमदनी हो जाया करती थी।

मेरी माँ ने मुझे पढने के लिए कहा तो लोग कहते थे कि लड़की है ज्यादा मत पढ़ाओ। लेकिन माँ ने किसी की नहीं सुनी। तब मेरी माँ मेरा बहुत साथ दिया। माँ ने कहा की मेरे बेटी पर मुझे यकीन है। जिसे मिलना है मिलो, जिसे नहीं मिलना वो अपने घर बैठो। मैंने दुकान पे काम करने के साथ साथ खूब पढाई की और आज यहाँ तक आ सकी।

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